Tuesday 9 July 2013

जाम्बवंती और सत्यभामा के साथ श्रीकृष्ण का विवाह

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श्रीमद भागवत के दसवें स्कंथ का छप्पनवा अध्याय यह बताता है की इन्सान धन और अपनी शक्तियों के मद में इतना घमंडी हो जाता है की उसे अपने सिवा दुनिया में कोई दिखाई नहीं देता। वह मूर्ख भगवन को भी तुच्छ द्रष्टि से देखता है और अपने आगे कुछ नहीं समझता। 

  सत्राजित जो कि सत्यभामा जी के पिता थे, वे सूर्य के बहुत बड़े भक्त थे। सूर्य भगवान् ने प्रसन्न होकर उन्हें श्यमन्तक मणि प्रदान की। सत्राजित ने इस मणि के प्राप्त होने की ख़ुशी में घर पर मंगल उत्सव का आयोजन किया। वह मणि प्रतिदिन बहुत सारा सोना उत्पन्न करती थी। एक बार जब सत्राजित भगवान् श्रीकृष्ण से मिलने पहुचे तो भगवान् श्रीकृष्ण ने प्रसंगवश कहा, 'तुम अपनी मणि राजा उग्रसेन को दे दो।' परन्तु वह इतना लोभी था की उसने भगवान् श्रीकृष्ण की आज्ञा को हंसी में टाल दिय. एक दिन सत्राजित के भाई प्रसेन ने उस परम प्रकाशमयी मणि को गले में धारण कर लिया और शिकार खेलने वन में चला गया। वहां एक शेर ने घोड़े सहित प्रसेन को मार डाला और मणि छीन ली। शेर एक पर्वत की गुफा में प्रवेश कर ही रहा था की मणि के लिए ऋक्षराज जाम्बवंत ने उसे मार डाला। उन्होंने मणि अपनी गुफा में ले जाकर बच्चे को खेलने के लिए दे दी। अपने भाई प्रसेन के ना लौटने पर उसके भाई सत्राजित को बड़ा दुःख हुआ। वह कहने लगा, 'बहुत संभव है कि श्रीकृष्ण ने ही श्यमन्तक मणि हथियाने के लिए मेरे भाई को मार डाला हो।' सत्राजित की ये बात सुनकर लोग कानाफूसी करने लगे। जब भगवान् श्रीकृष्ण को पता चला की यह कलंक का टीका मेरे मत्थे ही मढ़ा जा रहा है तब वह उसे धो बहाने के लिए कुछ सभ्य पुरुषों को साथ लेकर प्रसेन को ढूंढने के लिए वन में गए। प्रसेन को ढूंढ़ते ढूंढ़ते भगवान् श्रीकृष्ण  जाम्बवंत की गुफा तक पहुचे. भगवान् ने सब लोगो को बहार बिठा दिया वो अकेले ही घोर अंधकार से भरी हुई ऋक्षराज की भयंकर गुफा में प्रवेश कर गये। वहां उन्होंने देखा कि एक बच्चा  उस मणि के साथ खेल रहा था। भगवान् बच्चे से मणि लेने के लिए आगे बढे।, तभी वहां जाम्बवंत क्रोधित होकर दौड़ आये उन्हें भगवान् की महिमा का पता नहीं था . भगवान् को साधारण मनुष्य समझकर जाम्बवंत उनके साथ युद्ध करने लगे. इस प्रकार यह युद्ध अट्ठाईस दिनों तक लगर चलता रहा उसके पश्चात् जाम्बवंत का युद्ध करने का उत्साह जाता रहा वह पसीने से लथपथ हो गया और चकित होकर भगवान् श्रीकृष्ण से बोला, 'प्रभो मैं जान गया आप ही समस्त प्राणियों के स्वामी, रक्षक, प्राण पुरुष भगवान् विष्णु हैं आपने ही समुद्र पर सेतु बांधकर सुन्दर यश की स्थापना की और लंका का विध्वन्श किया अवश्य ही आप मेरे वे ही रामजी है जो श्रीकृष्ण के रूप में आये है. ' भगवान् कृपा भाव से भरकर प्रेम भरी गंभीर वाणी से अपने भक्त जाम्बवंत से कहते हैं , 'ऋक्षराज! हम मणि के लिए तुम्हारी गुफा में आये हैं इस मणि के द्वारा मैं अपने पर लगे झूटे कलंक को मिटाना चाहता हूँ ' भगवान् के ऐसा कहने पर जाम्बवंत ने बड़े आनंद से उनकी पूजा करने के लिए अपनी कन्या कुमारी जाम्बवंती और उस मणि को को उनके चरणों में समर्पित कर दिया। उधर भगवान् श्रीकृष्ण के इतने दिनों तक वापस न लौटने पर माता देवकी, रुक्मणि, वासुदेव तथा अन्य  सम्बन्धियों को यह मालूम हुआ की भगवन श्रीकृष्ण  गुफा से नहीं निकले तब उन्हें बड़ा शोक हुआ, सभी द्वारकावासी अत्यंत दुखित होकर सत्राजित को भला बुरा कहने लगे और भगवान् श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए महामाया दुर्गा देवी की शरण में गए और उनकी उपासना करने लगे। उनकी उपासना से दुर्गाजी प्रसन्न हुई और उन्होंने आशीर्वाद दिया। उसी समय उनके बीच मणि और अपनी नववधू जाम्बवंती के साथ भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हुए. उसके पश्चात् सत्राजित को भगवान् ने राज्यसभा में महाराज उग्रसेन के पास बुलवाया और पूरी कथा सुनकर मणि सत्राजित को वापस कर दी। इस घटना से सत्राजित अत्यंत लज्जित हो गया और सोचने लगा, 'मैं अपने अपराध का पश्ताप कैसे करु। सत्राजित ने अपने पाप का पश्चाताप करने के लिए वह मणि और अपनी पुत्री सत्यभामा दोनों ही ले जाकर श्रीकृष्ण को अर्पण कर दिया . भगवान् श्रीकृष्ण ने विधिपूर्वक सत्यभामा से विवाह किया तथा सत्राजित से कहा, 'हम श्यमन्तक मणि नहीं लेंगे, आप सूर्य भगवन के भक्त हैं इसलिए वह आपके ही पास रहेगी . हम तो केवल उसके फल के यानि उससे निकले हुए सोने के अधिकारी हैं वही आप हमें दे दिया करें।''














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