Saturday 22 June 2013

Secrets of getting Siddhi's- Hindi

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भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद भागवद में उद्धव को जीवन का सार बताया है। उन्होंने कहा कि दुनिया में सभी की बुद्धि माया से मोहित हो रही है इसी से हम अपने अपने कर्म संस्कार और अपनी अपनी रुचि के अनुसार आत्म कल्याण के साधन भी एक नही अनेक बतलाते हैं। हर कोई अपने किये कार्य को और उनके परिणामो को ही अपने जीवन का लक्ष्य मानते हैं और सोचते हैं कि  उनके द्वारा किए गए कार्य उनको जीवन और मृत्यु के झंझट से मुक्त कराएँगे। एक राजा सोचता है कि वह प्रजा के लिए सबसे  बेहतर कार्य  कर रहा है, एक साहित्यकार सोचता है कि वो लोगो की बेहतरी के लिए साहित्य लिख रहा है, चिकित्सक सोचता है कि वो लोगो की बेहतरी के लिए चिकित्सा कर रहा हैं। इस प्रकार हर कोई अपने जीवन में कोई ना कोई ऐसा प्रयास जरुर करता है जो उसे अंदर से सहानुभूति देता है कि वह कार्य उसने समाज के कल्याण के लिए किया है, जिसका उसे अच्छा फल  मिलेगा।

परन्तु राजा का राज्य करना, साहित्यकार का साहित्य लिखना और चिकित्सक का चिकित्सा करना, ये सभी कर्म हैं और इन कर्मो के फलस्वरूप व्यक्ति स्वर्ग या नर्क लोक भोगता है। इन कर्मो के जाल में पड़ना केवल दुःख ही देता है। 

भगवान् कहते हैं- जो सब ओर से बेपरवाह हो गया है, किसी भी कर्म और फल की आवश्यकता नहीं रखता और अपने अंतकरण को सब प्रकार से मुझे ही समर्पित कर चुका है, परमानन्द स्वरुप मैं उसकी आत्मा के रूप में स्वयं स्थापित होने लगता हूँ। इससे वह जिस सुख का अनुभव करता है वह विषयलोलुप प्राणियों को कभी प्राप्त नहीं हो सकता। इस प्रकार जो प्राणी मुझे प्राप्त कर लेता है वह सदा सर्वदा पूर्ण संतोष का अनुभव करता है, फिर उसके लिए न तो स्वर्गलोक कोई मायने रखता है न ही इंद्र या ब्रह्मा का पद। वह समस्त प्राणियों के प्रति दया और प्रेम का भाव रखता है और इसी प्रकार की कामना उसकी बुद्धि को स्पष्ट नहीं कर पाती। उद्धव! जैसे जलती हुई आग लकड़ियों के ढेर को जलाकर खाक कर देती है वैसे ही मेरी भक्ति प्राणी के समस्त पापों को पूर्ण रूप से जला डालती है। जब तक सारा शरीर पुलकित नहीं हो जाता आनंद के आंसू आँखों से छलकने नहीं लगते तथा अन्तरंग और बाह्यरंग भक्ति की बाढ़ में चित्त डूबने- उतरने नहीं लगता तब तक इसके शुद्ध होने की कोई सम्भावना नहीं है। इसलिए उद्धव तुम दूसरे साधनों और फलो की चिंता तो छोड़ दो। अरे भाई! मेरे अतिरिक्त और कुछ तो है ही नहीं। जो कुछ दिखाई देता है ठीक वैसा ही है जैसे रात्रि में देखा हुआ स्वप्न। इसलिए मेरे चिंतन से तुम अपना ह्रदय शुद्ध कर लो और उसे पूरी तरह से एकाग्रता से मुझमे ही लगा दो। संयमी पुरुष स्त्रियों और उनके प्रेमियोंका साथ दूर से ही छोड़कर पवित्र एकांत स्थान में बैठकर बढ़ी सावधानी से मेरा ही चिंतन करे। प्यारे उद्धव! स्त्रियों के संग से और स्त्रीसंगियो - लंपटो के संग से पुरुष को जैसा दुःख और बंधन में पड़ना पड़ता है वैसा कलेश और फंसावट और किसी भी संग में नहीं होती। 

उद्धव जी ने पूछा- प्रभु! कृपा करके बताइए कि किसी व्यक्ति को किस रूप से, किस प्रकार और किस भाव से ध्यान करना चाहिए।

 भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा, प्रिय उद्धव! जो न तो बहुत ऊँचा हो और न ही बहुत नीचा, ऐसे आसन पर शरीर को सीधा रखकर आराम से बैठ जाये, हाथो को अपनी गोद में रख ले और द्रष्टि अपनी नासिका के अग्र भाग पर जमा दे। इसके बाद पूरक कुम्भक और रेचक तथा रेचक कुम्भक और पूरक इन प्राणायामों के द्वारा नाड़ियो का शोधन करे। प्राणायाम का अभ्यास धीरे धीरे बढ़ाना चाहिए और इसके साथ साथ इन्द्रियों को जीतने का भी प्रयास करना चहिये। ह्रदय में कमलनालगत पतले सूत के समान ॐकार चिंतन करें। प्राण के द्वारा उसे ऊपर ले जाये और उसमे घंटानाद के समान स्वर स्थित करे. उस स्वर  का ताँता टूटने न पाए। इस प्रकार प्रतिदिन तीन समय दस दस बार ओमकार सहित प्राणायाम का अभ्यास करे, ऐसा करने से एक महीने के अन्दर ही प्राणवायु वश में हो जाता है। इसके बाद ऐसा चिंतन करे की ह्रदय एक कमल है. वह शरीर के भीतर इस प्रकार स्थित है मानो उसकी डंडी तो ऊपर की ओर है और मुँह नीचे की ओर। अब ध्यान करना चाहिए कि उसका मुख ऊपर की ओर होकर खिल गया है, उसके आठ पंखुड़िया हैं और बीचोबीच बहुत सुंदर कर्णिका (गद्दी) पर क्रमशः सूर्य चन्द्रमा और अग्नि का न्यास  करना चाहिए। उसके पश्चात् अग्नि के अन्दर मेरे इस रूप का स्मरण करना चाहिए। मेरा यह स्वरुप ध्यान के लिए बड़ा मंगलमय है मेरे अवयवो की गठन बड़ी ही सुडौल है। रोम रोम से शांति टपकती है , मुखकमल अत्यंत प्रफुल्लित और सुन्दर है, घुटनों तक लम्बी मनोहर चार भुजाएं हैं, बड़ी ही सुन्दर और मनोहर गर्दन है, मरकत मणि के समान सुस्निग्ध कपोल हैं मुख पर मंद मंद मुस्कान की अनोखी छटा है, दोनों और के कान बराबर हैं और उनमे मकराकृत कुंडल झिलमिला रहे हैं। वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल शरीर पर पीताम्बर फहरा रहा है। श्रीवत्स एवं लक्ष्मी जी का चिन्ह वक्षस्थल पर दाँये - बाँए विराजमान है। हाथो में क्रमशः शंख, चक्र गदा एवं पद्म धारण किये हुए हैं, गले में वनमाला लटक रही है, चरणों में नुपुर शोभा दे रहे हैं, गले में कौस्तुभ मणि जगमगा रही है। अपने अपने स्थान पर चमचमाते हुए किरीट, कंगन, करधनी और बाजूबंद शोभायमान हो रहे हैं। मेरा एक एक अंग अत्यंत सुन्दर एवं ह्रदयहारी है। सुन्दर मुख और प्यार भरी चितवन कृपा प्रसाद की वर्षा कर रही है। उद्धव! मेरे इस सुकुमार रूप का ध्यान करना चाहिए और अपने मन को एक एक अंग में लगाना चाहिए।

बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि मन के द्वारा इंद्रियों को उनके विषयों से खींच ले और मन को बुद्धिरूप सारथि की सहायता से मुझमे ही लगा दे, चाहे मेरे किसी भी अंग में क्यों न लगे। जब सारे शरीर का ध्यान होने लगे तब अपने चित्त को खींचकर एक स्थान में स्थित करे और अन्य अंगो का चिंतन न करके मंद मंद मुस्कान की छटा से युक्त मेरे मुख का ध्यान करे। जब चित्त मुखारविंद में ठहर जाये तब उसे वह से हटाकर आकाश में स्थित करे तदन्तर आकाश का चिंतन भी त्यागकर मेरे स्वरुप में आरुढ़ हो और मेरे सिवा किसी भी वस्तु का चिंतन न करे। जब इस प्रकार चित्त समाहित हो जाता है तब जैसे एक ज्योति दूसरी ज्योति से मिलकर एक हो जाती है वैसे ही अपने में मुझे और मुझ सर्वात्मा में अपने को अनुभव करने लगता है। जो योगी इस प्रकार तीव्र ध्यान योग के द्वारा मुझमे ही अपने चित्त का संयम करता है उसके चित्त से वस्तु की अनेकता तत्व सम्बन्धी ज्ञान और उनकी प्राप्ति के लिए होने वाले कर्मो का भ्रम शीघ्र ही निवृत हो जाता है।

प्रिय उद्धव! जो व्यक्ति प्राण, इंद्रियाँ और मन को अपने  अपना चित्त मुझमे लगाने लगता है तब उसके सामने बहुत सी सिद्धियाँ उपस्थित होती हैं. ये सिद्धियाँ अठारह प्रकार की होती हैं।  उनमे आठ सिद्धियाँ तो प्रधान रूप से मुझमे ही रहती हैं और दूसरों में कम।  तथा दस सत्वगुण के विकास से भी मिल जाती हैं।  उसमे से तीन सिद्धियाँ तो शारीर की है 'अणिमा', 'महिमा' और 'लघिमा' . इन्द्रियों की एक सिद्धि है 'प्राप्ति' . लौकिक और पारलौकिक पदार्थों का इच्छानुसार अनुभव करने वाली सिद्धि 'प्राकाम्य' है।  माया और उसके कार्यों को इच्छानुसार संचालित करना 'इशिता' नाम की सिद्धि है।  विषयों में रहकर भी उनमे आसक्त न होना 'वशिता' है और व्यक्ति जिस भी सुख की कामना करे उसकी सीमा तक पहुँच जाना 'कामावसायिता' नाम की आठवीं सिद्धि है।  ये आठों सिद्धियाँ मुझमे स्वाभाव से ही रहती हैं और जिन्हें मैं देता हूँ उन्ही को अंशत प्राप्त होती हैं।  इसके अतिरिक्त और भी कई सिद्धियाँ हैं।  शरीर को भूख प्यास न लगना , बहुत दूर की वास्तु देख लेना और बहुत दूर की बात सुन लेना, मन के साथ ही शरीर का उस स्थान पर पहुँच जाना, जो इच्छा हो वही रूप बना लेना दूसरे शारीर में प्रवेश करना, जब इच्छा हो तभी शरीर छोड़ना, अप्सराओं के साथ होने वाली देवक्रीडा का दर्शन, संकल्प की सिद्धि, सब जगह सब के द्वारा बिना ना नुकुर के आज्ञापालन - ये दस सिद्धियाँ सत्वगुण के विशेष विकास से होती हैं।  भूत, भविष्य और वर्तमान की बात जान लेना, गर्मी - सर्दी, सुख- दुःख और राग द्वेष आदि के वश में ना होना, दूसरे के मन की बात जान लेना, अग्नि, सूर्य, जल, विष आदि की शक्ति को रोक देना और किसी से भी पराजित ना होना ये पाँच सिद्धियाँ भी योगियों को प्राप्त होती हैं। अब किस धारणा से कौन सी सिद्धि कैसे प्राप्त होती है यह बतलाता हूँ।  

प्रिय उद्धव ! पंचभूतों की सूक्ष्मतम मात्राएँ मेरा ही शारीर हैं जो साधक केवल मेरे उसी शारीर की उपासना करता है और अपने मन को तदाकार बनाकर उसमें लगा देता है अर्थात मेरे तन्मत्रात्मक शरीर के अतिरिक्त और किसी भी वास्तु का चिंतन नहीं करता उसे अणिमा नाम की सिद्धि अर्थात पत्थर की चट्टान अदि में भी प्रवेश करने की शक्ति 'अणुता' प्राप्त हो जाती है।  महतत्व के रूप में भी मैं ही प्रकाशित हो रहा हूँ।  और उस रूप में समस्त व्यावहारिक ज्ञानों का केंद्र हूँ।  जो मेरे उस रूप में अपने मन को मह्तत्वाकार करके तन्मय कर देता है उसे 'महिमा' नाम की सिद्धि प्राप्त होती है और इसी प्रकार आकाशादि पंचभूतों में जो मेरे ही शरीर हैं अलग अलग मन लगाने से उनकी महत्ता प्राप्त हो जाती है यह भी 'महिमा' सिद्धि के ही अंतर्गत है।  जो योगी वायु आदि चार भूतों के परमाणुओं को मेरा ही रूप समझकर चित्त को तदाकार कर देता है उसे 'लघिमा' सिद्धि प्राप्त हो जाती है।  उसे परमाणु रूप काल के समान सूक्ष्म वस्तु बनाने का सामर्थ्य प्राप्त हो जाता है  . जो सात्विक अहंकार को मेरा स्वरुप समझकर मेरे उसी रूप में चित्त की धारणा करता है वह समस्त इन्द्रियों का अधिष्ठाता हो जाता है।  मेरा चिंतन करने वाला भक्त इस प्रकार 'प्राप्ति'  नाम की सिद्धि प्राप्त कर लेता है।  जो पुरुष मुझ महतत्वाभिमानी सूत्रात्मा में अपना चित्त स्थिर करता है उसे मुझ अव्यक्त जन्मा की 'प्राकाम्य' नाम की सिद्धि प्राप्त होती है जिससे इच्छानुसार सभी भोग प्राप्त हो जाते हैं।  जो त्रिगुणमयी माया के स्वामी मेरे कालस्वरूप विश्वरूप की धारणा करता है वह शरीरों और जीवों को अपने इच्छानुसार प्रेरित करने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है इस सिद्धि का नाम है 'ईशित्व' . जो योगी मेरे नारायण स्वरुप में जिसे तुरीय और भगवान भी कहते हैं मन को लगा देता है मेरे स्वाभाविक गुण उसमें प्रकट हो जाते हैं और उसे 'वशिता' नाम की सिद्धि प्राप्त हो जाती है।  निर्गुण ब्रह्म भी मैं ही हूँ जो अपना निर्मल मन मेरे इस ब्रह्मस्वरूप में स्थित करता है उसे परमानन्दस्वरूपिणी 'कामावसायिता' नाम की सिद्धि प्राप्त होती है।  इसके मिलने पर उसकी सारी कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं, समाप्त हो जाती हैं।  प्रिय उद्धव ! मेरा वह रूप जो श्वेत द्वीप का स्वामी है अत्यंत शुद्ध और धर्ममय है।  जो उसकी धारणा करता है वह भूख प्यास, जन्म- म्रत्यु और शोक- मोह इन छह उर्मियों से मुक्त हो जाता है और उसे शुद्ध स्वरुप की प्राप्ति होती है।  मैं ही समष्टि प्राण रूप आकाशात्मा हूँ जो मेरे इस स्वरुप में मन के द्वारा अनाहत नाद का चिंतन करता है वह दूरश्रवन नाम की सिद्धि से संपन्न हो जाता है और आकाश में उपलब्ध होने वाली विविध प्राणियों की बोली को सुन समझ सकता है।  जो योगी नेत्रों को सूर्य में और सूर्य को नेत्रों में संयुक्त कर देता है और दोनों के संयोग में मन ही मन मेरा ध्यान करता है उसकी द्रष्टि सूक्ष्म हो जाती है उसे दूरदर्शन नाम की सिद्धि प्राप्त हो जाती है और वह सरे संसार को देख सकता है।  मन और शरीर को प्राणवायु के सहित मेरे साथ संयुक्त कर दे और मेरी धारणा करे तो इससे मनोजव नाम की सिद्धि प्राप्त हो जाती है।  इसके प्रभाव से वह योगी जहाँ भी जाने का संकल्प करता है वहीँ उसका शरीर उसी क्षण पहुँच जाता है।  जिस समय योगी मन को उपादान कारण बनाकर किसी देवता आदि का रूप धारण करना चाहता है तो वह अपने मन के अनुकूल वैसा ही रूप धारण कर लेता है इसका कारण यह है की उसने अपने चित्त को मेरे साथ जोड़ दिया है।  जो योगी दूसरे शरीर में प्रवेश करना चाहे वह ऐसी भावना करे की मैं उसी शरीर में हूँ ऐसा करने से उसका प्राण वायुरूप धारण कर लेता है और वह एक फूल से दूसरे फूल पर जाने वाले भँवरे के समान अपना शरीर छोड़कर ददूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है।  योगी को यदि शरीर का परित्याग करना हो तो एड़ी से गुदाद्वार को दबाकर प्राणवायु को क्रमशः ह्रदय, वक्षस्थल, कंठ और मस्तक में ले जाये फिर ब्रह्मान्द्र द्वारा उसे ब्रह्मा में लीन करके शारीर का परित्याग कर दे।  यदि उसे देवताओं के विहारस्थलों में क्रीड़ा करने की इच्छा हो तो मेरे शुद्ध सत्वमय स्वरुप की भावना करे।  ऐसा करने से सत्वगुण की अंश स्वरूपा सुर सुंदरियाँ विमान पर चढ़कर उसके पास पहुँच जाती हैं।  जिस पुरुष ने मेरे सत्यसंकल्पस्वरुप में अपना चित्त स्थिर किया है उसी के ध्यान में संलग्न है वह अपने मन से जिस समय जैसा संकल्प करता है उसी समय उसका वह संकल्प सिद्ध हो जाता है।  मैं ईशित्व और वशित्व इन दोनों सिद्धियों का स्वामी हूँ।  इसलिए कभी कोई मेरी आज्ञा टाल नहीं सकता। जो मेरे उस रूप का चिंतन करके उसी भाव से युक्त हो जाता है मेरे समान उसकी आज्ञा को भी कोई टाल नहीं सकता।  जिस योगी का चित्त मेरी धारणा करते करते मेरी भक्ति के प्रभाव से शुद्ध हो गया हो उसकी बुद्धि जन्म म्रत्यु आदि अदृष्ट विषयों को भी जान लेती है।  और तो क्या भूत, भविष्य, और वर्तमान की सभी बातें उसे मालूम हो जाती हैं।  जैसे जल के द्वारा जल में रहने वाले प्राणियों का नाश नहीं होता वैसे ही जिस योगी ने अपना चित्त मुझमे लगाकर शिथिल कर दिया है उसके योगमय शरीर को अग्नि, जल आदि कोई भी पदार्थ नष्ट नहीं कर सकते।  जो पुरुष श्रीवत्स आदि चिन्ह और शंख, गदा, चक्र और पद्म आदि आयुधों से विभूषित तथा ध्वजा छत्र चँवर आदि से संपन्न मेरे अवतारों का ध्यान करता है वह अजेय हो जाता है।

इस प्रकार जो विचारशील पुरुष मेरी उपासना करता है और योग धारणा के द्वारा मेरा चिंतन करता है उसे वह सभी सिद्धियाँ पुर्णतः प्राप्त हो जाती हैं जिनका वर्णन मैंने किया है।  प्यारे उद्धव ! जिसने अपने प्राण, मन और इन्द्रियोंज पर विजय प्राप्त कर ली है, जो संयमी है और मेरे ही स्वरुप की धारणा कर रहा है उसके लिए ऐसी कोई भी सिद्धि नहीं है जो दुर्लभ हो उसे तो सभी सिद्धियाँ प्राप्त ही है।  परन्तु श्रेष्ठ पुरुष कहते है की जो लोग भक्ति योग अथवा ज्ञान योग आदि का अभ्यास कर रहे हैं जो मुझसे एक हो रहे हैं उनके लिए इन सिद्धियों का प्राप्त होना एक विघ्न ही है क्योंकि इनके कारण व्यर्थ ही उनके समय का दुरूपयोग हो जाता है।  जगत में जन्म, औषधि, तपस्या और मंत्र आदि के द्वारा जितनी भी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं वे सभी योग के द्वारा मिल जाती हैं परन्तु योगी की अंतिम सीमा मेरे सारुप्य, सालोक्य आदि की प्राप्ति बिना मुझमे चित्त लगाए किसी भी साधन से नहीं प्राप्त हो सकती।  ब्रह्मवादियों ने बहुत से साधन बतलाये हैं योग, सांख्य और धर्म आदि उनका एवं समस्त सिद्धियों का एकमात्र मैं ही हेतु, स्वामी और प्रभु हूँ।  जैसे स्थूल पंचभूतों में बाहर भीतर सर्वत्र सूक्ष्म पञ्च महाभूत ही हैं।  सूक्ष्म भूतों के अतिरिक्त स्थूल भूतों की कोई सत्ता ही नहीं है वैसे ही मैं समस्त प्राणियों के भीतर द्रष्टा रूप से और बाहर द्रश्य रूप से स्थित हूँ।  मुझमे बाहर और भीतर का भेद नहीं है क्योंकि मैं निरावरण एक अद्वितीय आत्मा हूँ।  
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3 comments:

  1. great work dear ankur.. shared with many .. namo naraayn

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  2. HI Ankurji... first of all I am thankful to you for creating a blog for Lord Krishna... I need to know his story when he gets married to Satyabhama..?

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    1. http://oceanoffruition.blogspot.in/2013/07/blog-post.html

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