Sunday 4 September 2016

भक्तियोग की महिमा तथा ध्यान विधि का वर्णन।


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श्रीमद भागवत - एकादश स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय

उद्धव जी ने पुछा - श्रीकृष्ण ! ब्रम्हवादी परमात्मा आत्मकल्याण के लिए अनेको साधन बतलाते हे । उनमे  दृष्टि के अनुसार सभी श्रेष्ठ है अथवा किसी एक की प्रधानता है? मेरे स्वामी ! आपने तो अभी अभी भक्तियोग को ही निरपेक्ष एवं स्वन्त्र साधन बतलाया हे क्योकि इसी से ही सब और से आसक्ति छोड़ कर मन आप में ही तन्मय हो जाता है ।

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा- प्रिय उद्धव ! सभी जातियो और व्यक्तियों के स्वाभाव - उनकी वासनाये सत्व रज और तमो गुण के कारन भिन्न है; इसलिए उनमे और उनकी बुद्धिवृत्तियो में भी अनेको भेद है । इसलिए वे सभी अपनी अपनी प्रकर्ति के अनुसार उस वेद वाणी का भिन्न भिन्न अर्थ  ग्रहण करते है। वह वाणी ही  ऐसी अलौकिक है की उससे विभिन्न अर्थ निकलना स्वाभाविक है । इसी प्रकार स्वाभाव भेद से तथा परंपरागत उपदेश के भेद से मनुष्यो की बुद्धि में भिन्नता आ जाती है और कुछ लोग  बिना किसी विचार के वेदविरुद्ध पखण्डमतावलंबी हो जाते है।  प्रिय उद्धव ! सभी की बुद्धि मेरी ही माया से मोहित हो रही है; इसी से वे अपने - अपने कर्म संस्कार और अपनी अपनी रूचि के अनुसार आत्मकल्याण के साधन भी एक नहीं नहीं अनेक  बताते है ।

कर्मा योगी लोग यज्ञ तप दान व्रत तथा यम नियम आदि को पुरुषार्थ बतलाते है परंतु ये सभी कर्म है इसके फलस्वरूप जो भी लोक मिलते है वे उत्पत्ति और नाश  है । कर्मो के फल समाप्त हो जाने पर उनसे दुःख ही मिलता है और सच पूछो तो उनकी अंतिम गति  अज्ञान ही है । उससे जो सुख मिलता है वो तुच्छ है - नगण्य है और वे लोक भोगने के समय भी असूया आदि दोषो के कारन शोक से परिपूर्ण है इसलिए इन विभिन्न साधनो के फेर में नहीं पड़ना चाहिए ।

प्रिय उद्धव । जो सब  निरपेक्ष है - बेपरवाह हो गया है, किसी भी कर्म या फल आदि की आवशयक्ता नहीं रखता और अपने अंतःकरण को सब  मुझे ही समर्पित कर चूका है, परमानन्द  उसकी आत्मा के रूप में स्फुरित होने लगता हूँ । इससे वह जिस सुख का अनुभव करता है, वह विषय लोलुप प्राणियों को किसी प्रकार नहीं मिल सकता । जो सब प्रकार से संग्रह परिग्रह से रहित अकिंचन है, जो अपनी इन्द्रियों पे विजय प्राप्त करके शांत और समदर्शी हो गया है जो मेरी प्राप्ति से ही मेरे सानिध्य का अनुभव करके ही सदा सर्वदा पूर्ण संतुष्टि का अनुभव करता है, उसके लिए आकाश का एक एक कोना आनंद से भरा हुआ है । जिसने अपने को मुझे सोप दिया है वह मुझे छोड़ कर न तो ब्रम्हा का पद  चाहता है  देवराज इंद्रा का,  उसके मन में न तो सर्वभमक सम्राट बनने की इच्छा होती है और न वह स्वर्ग से भी श्रेष्ठ रसातल का ही स्वामी होना चाहता है । वह योगी बड़ी बड़ी सिद्दियों और यहाँ तक की मोक्ष की भी अभिलाषा नहीं  करता । उद्धव मुझे तुम्हारे जैसे प्रेमी भक्त जितने प्रियतम है, उतने प्रिये  मेरे पुत्र ब्रह्मा, आत्मा शंकर, सगे भाई बलराम जी, स्वयं अर्धांगिनी लक्ष्मी जी और मेरी अपनी आत्मा भी नहीं है । जिसे किसी की अपेक्षा  न हो, जो जगत की चिंता से सर्वदा उपरत हो कर मेरे ही मनन चिंतन में तल्लीन रहता है और राग द्वेष न रख कर सबके प्रति सामान दृष्टि रखता है, उस महात्मा के पीछे पीछे में निरंतर यह सोच कर घुमा  करता हूँ की उसके चरणों  उड़ कर मेरे ऊपर पड़  जाये और में पवित्र हो जाऊँ । जो सब प्रकारके संग्रह - परिग्रह से रहित है । यहातक की शरीर आदि में भी अहंता- ममता नहीं रखते, जिनका चित्त  प्रेम में रंग गया है, जो संसार की वासनाओ से शांत उपरत हो  चुके हो और जो अपनी महत्ता उदारता के कारन स्वाभाव से ही समस्त प्राणियों पे दया और प्रेम का भाव रखते है, किसी प्रकार की कामना जिनकी बुद्धि स्पर्श नहीं कर पाती, उन्हें मेरे जिस परमानन्द स्वरुप का अनुभव होता है उसे और कोई नहीं जान सकता; क्योकि वह परमानन्द तो केवल निरपेक्षता से ही प्राप्त हो सकता है ।

उद्धव जी ! मेरा जो भक्त अभी जितेन्द्रिय नहीं हो सका है और संसार के विषय बार बार उसे बाधा पहुचाते रहते है - अपनी और खींच लिया करते है, वह भी छड़ छड़ में मेरी बढ़ने वाली मेरी प्रगल्भ भक्ति के प्रभाव से प्रायः विषयो से पराजित नहीं होता । उद्धव !  जैसे धधकती हुई आग लकडियो के बड़े  ढेर को भी जला कर खाक कर देती है, वैसे ही मेरी भक्ति भी समस्त पाप राशियों को पूर्णतया जल डालती है। उद्धव योग साधना, ज्ञान विज्ञानं, धर्मानुष्ठान, जप-पाठ और टप त्याग मुझे प्राप्त करने में उतने समर्थ नहीं है, जितनी दिनों दिन बढ़ने वाली अनन्य प्रेममयी मेरी भक्ति । मई संतो का प्रियतम आत्मा हूँ, मई अनन्य श्रद्धा और अनन्य भक्ति से ही पकड़ में आता हूँ । मुझे प्राप्त करने का यह एक ही उपाय है । मेरी अनन्य भक्ति उन लोगो को भी पवित्र - जातिदोषमुक्त कर देती है,  जो जन्म से ही चांडाल है । इसके विपरीत जो मेरी भक्ति से वंचित है, उनके चित्त को सत्य और दया से युक्त, धर्म और तपस्या से युक्त विद्या भी भली भाती पवित्र करने में असमर्थ है । जबतक सारा शरीर पुलकित नहीं हो जाता, चित्त पिघल कर गदगद नहीं हो जाता, आनंद के आँसू आखो से छलकने नहीं लगते तथा अंतरंग और वहिरंग भक्ति की बाढ़ में चित्त डूबने और उतरने नहीं लगता तब तक इसके शुद्ध होने की कोई सम्भावना नहीं है, जिसकी वाणी प्रेम से गदगद हो  रही है, चित्त पिघल कर एक और बहता रहता है, एक छड़ के लिए भी रोने का ताता नहीं टूटता, परंतु जो कभी कभी खिलखिलाकर हँसने भी  लगता है, कही लाज छोड़ कर ऊँचे सुर में गाने लगता है, तो कही नाचने  लगता है, भैया उद्धव ! मेरा वह भक्त न केवल अपने को बल्कि  सारे संसार को पवित्र कर देता है - निखर जाता है और अपने असली शुद्ध रूप में इस्थिर हो जाता है, वैसे ही मेरे भक्तियोग के द्वारा आत्मा कर्म वासनाओ  से मुक्त हो कर मुझको ही प्राप्त हो  जाता है; क्योकि में ही  वास्तविक स्वरुप हूँ ।

उघव जी ! मेरी परम पावन लीला कथा के श्रवण कीर्तन से ज्यो ज्यो  मैल धुलता जाता है, त्यों त्यों उसे सुक्ष्म वास्तु के वास्तिविक तत्त्व  दर्शन  होने लगते है - जैसे अंजन के द्वारा नेत्र दोष मिटने पर उसमे सुक्ष्म वस्तुओ को देखने की शक्ति आने लगती है ।

जो पुरुष निरंतर विषय चिंतन किया करता है, उसका चित्त विषय में फस जाता है और जो मेरा स्मरण करता है, उसका चित्त मुझमे तल्लीन हो  जाता है । इसलिए तुम दुसरे साधनो  चिंतन छोड़ दो । अरे भाई ! मेरे अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं ही, जो कुछ जान पड़ता है, वह ठीक वैसा ही है जैसे स्वप्न अथवा मनोरथ का राज्य । इसी लिए मेरे चिंतन से तुम अपना चित्त शुद्ध कर लो और उसे पूरी तरह से एकाग्रता से मुझ में ही लगा दो ।  संयमी पुरुष स्त्रियों और उनके प्रेमियो का संग दूर से ही छोड़ कर, पवित्र एकांत स्थान में बैठ कर बड़ी सावधानी से मेरा ही चिंतन करे । प्यारे उद्धव ! स्त्रियों संग से और स्त्रीसंगियोके- लम्पटों के संग से पुरुष के जैसे क्लेश और बंधनो में पड़ना पड़ता है, वैसा क्लेश और फसवट और किसी संग से नहीं होति।

उद्धव जी ने पूछा- प्रभु! कृपा करके बताइए कि किसी व्यक्ति को किस रूप से, किस प्रकार और किस भाव से ध्यान करना चाहिए।

 भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा, प्रिय उद्धव! जो न तो बहुत ऊँचा हो और न ही बहुत नीचा, ऐसे आसन पर शरीर को सीधा रखकर आराम से बैठ जाये, हाथो को अपनी गोद में रख ले और द्रष्टि अपनी नासिका के अग्र भाग पर जमा दे। इसके बाद पूरक कुम्भक और रेचक तथा रेचक कुम्भक और पूरक इन प्राणायामों के द्वारा नाड़ियो का शोधन करे। प्राणायाम का अभ्यास धीरे धीरे बढ़ाना चाहिए और इसके साथ साथ इन्द्रियों को जीतने का भी प्रयास करना चहिये। ह्रदय में कमलनालगत पतले सूत के समान ॐकार चिंतन करें। प्राण के द्वारा उसे ऊपर ले जाये और उसमे घंटानाद के समान स्वर स्थित करे. उस स्वर  का ताँता टूटने न पाए। इस प्रकार प्रतिदिन तीन समय दस दस बार ओमकार सहित प्राणायाम का अभ्यास करे, ऐसा करने से एक महीने के अन्दर ही प्राणवायु वश में हो जाता है। इसके बाद ऐसा चिंतन करे की ह्रदय एक कमल है. वह शरीर के भीतर इस प्रकार स्थित है मानो उसकी डंडी तो ऊपर की ओर है और मुँह नीचे की ओर। अब ध्यान करना चाहिए कि उसका मुख ऊपर की ओर होकर खिल गया है, उसके आठ पंखुड़िया हैं और बीचोबीच बहुत सुंदर कर्णिका (गद्दी) पर क्रमशः सूर्य चन्द्रमा और अग्नि का न्यास  करना चाहिए। उसके पश्चात् अग्नि के अन्दर मेरे इस रूप का स्मरण करना चाहिए। मेरा यह स्वरुप ध्यान के लिए बड़ा मंगलमय है मेरे अवयवो की गठन बड़ी ही सुडौल है। रोम रोम से शांति टपकती है , मुखकमल अत्यंत प्रफुल्लित और सुन्दर है, घुटनों तक लम्बी मनोहर चार भुजाएं हैं, बड़ी ही सुन्दर और मनोहर गर्दन है, मरकत मणि के समान सुस्निग्ध कपोल हैं मुख पर मंद मंद मुस्कान की अनोखी छटा है, दोनों और के कान बराबर हैं और उनमे मकराकृत कुंडल झिलमिला रहे हैं। वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल शरीर पर पीताम्बर फहरा रहा है। श्रीवत्स एवं लक्ष्मी जी का चिन्ह वक्षस्थल पर दाँये - बाँए विराजमान है। हाथो में क्रमशः शंख, चक्र गदा एवं पद्म धारण किये हुए हैं, गले में वनमाला लटक रही है, चरणों में नुपुर शोभा दे रहे हैं, गले में कौस्तुभ मणि जगमगा रही है। अपने अपने स्थान पर चमचमाते हुए किरीट, कंगन, करधनी और बाजूबंद शोभायमान हो रहे हैं। मेरा एक एक अंग अत्यंत सुन्दर एवं ह्रदयहारी है। सुन्दर मुख और प्यार भरी चितवन कृपा प्रसाद की वर्षा कर रही है। उद्धव! मेरे इस सुकुमार रूप का ध्यान करना चाहिए और अपने मन को एक एक अंग में लगाना चाहिए।

बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि मन के द्वारा इंद्रियों को उनके विषयों से खींच ले और मन को बुद्धिरूप सारथि की सहायता से मुझमे ही लगा दे, चाहे मेरे किसी भी अंग में क्यों न लगे। जब सारे शरीर का ध्यान होने लगे तब अपने चित्त को खींचकर एक स्थान में स्थित करे और अन्य अंगो का चिंतन न करके मंद मंद मुस्कान की छटा से युक्त मेरे मुख का ध्यान करे। जब चित्त मुखारविंद में ठहर जाये तब उसे वह से हटाकर आकाश में स्थित करे तदन्तर आकाश का चिंतन भी त्यागकर मेरे स्वरुप में आरुढ़ हो और मेरे सिवा किसी भी वस्तु का चिंतन न करे। जब इस प्रकार चित्त समाहित हो जाता है तब जैसे एक ज्योति दूसरी ज्योति से मिलकर एक हो जाती है वैसे ही अपने में मुझे और मुझ सर्वात्मा में अपने को अनुभव करने लगता है। जो योगी इस प्रकार तीव्र ध्यान योग के द्वारा मुझमे ही अपने चित्त का संयम करता है उसके चित्त से वस्तु की अनेकता तत्व सम्बन्धी ज्ञान और उनकी प्राप्ति के लिए होने वाले कर्मो का भ्रम शीघ्र ही निवृत हो जाता है।