Monday 9 May 2016

गोपियों के वस्त्रहरण की कथा- जब में था तब हरि नहि जब हरि है में नाही ।

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जब में था तब हरि नहि जब हरि है में नाही । 
सब अँधियारो मिट गयो जब दीपक देख्या माहि।  #कबीर 

आज के समय में भगवान् को चाहना और साथ ही संसार को भी न छोड़ना, संस्कारो में भी उलझे रहना - माया के परदे को बनाए रखना, बड़ी द्विविधा की दशा हे। भगवान् यही कहते  हैं  की ' संस्कार शुन्य हो कर, माया का पर्दा हटा कर आओ ; मेरे पास आओ । यह पर्दा ही तो परमात्मा और जीव के बीच में बड़ा व्यवधान हे।

जीवन में कई बार हमारे  पुराने संस्कार श्रीकृष्ण के सम्मुख जाने में बाधक हो जाते है ; हम श्रीकृष्ण के लिए सबकुछ भूलने को तैयार हो जाते हे; परन्तु अपने आप को नहीं।

ये  इच्छाएं ही कही न कही भक्त और भगवान् के बीच दीवार का काम करती हे और हम ये कैसे मान लेते हे की उन  सर्वव्यापी और अंतर्यामी प्रभु से कुछ छिपा हे जो हम मांगेंगे तो वो देंगे ।

श्रीकृष्ण चराचर प्रकृति  के एक मात्र अधीश्वार हे; समस्त क्रियाओं के कर्ता, भोक्ता और साक्षी भी वही हे। ऐसा एक भी अव्यक्त पदार्थ नहीं हे जो बिना किसी परदे के उनके सामने ना हो । वही सर्वव्यापक अंतर्यामी हे । सम्पूर्ण  विश्व के प्राणियों की आत्मा हे । 


"इस संसार में साधक की यही दशा हे- भगवान् को चाहना और साथ ही संसार को भी न छोड़ना, संस्कारो में भी उलझे रहना - माया के परदे को बनाए रखना, बड़ी द्विविधा की दशा हे। भगवान् यही सिखाते हे की ' संस्कार शुन्य हो कर, निरावरण हो कर, माया का पर्दा हटा कर आओ ; मेरे पास आओ । अरे तुम्हारा मोह का पर्दा तो मेने ही चिन लिया हे। और तुम अब इस परदे के मोह में क्यों पड़ी हो? यह पर्दा ही तो परमात्मा और जीव के बीच में बड़ा व्यवधान हे; यह हट गया बड़ा कल्याण हुआ । "

कथा प्रारम्भ 
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मार्गशीष माह में नंदबाबा के ब्रज की कुमरिया कात्यायिनी देवी की पूजा और व्रत करने लगी । वे केवल हविषन्य कहती थी और उनका ये व्रत और पूजा करने का एकमात्र उद्देश्य भगवन श्री कृष्णा को पति के रूप में पान थी । इस प्रकार उन कुमारियों ने जिनका मन जिन श्री कृष्णा पर न्योछावर हो चूका था उन्ही को पाने के लिए एक महीने तक भद्र काली की भलीभांति पूजा की ।
वे प्रतिदिन उषा काल में ही नाम ले ले कर एक दूसरी सखी को पुकरलेति और परस्पर हाथ में हाथ डालकर उचे स्वर में भगवन श्रीकृष्ण की लीला तथा नामो का गान करती हुई यमुना जल में स्नान करने के लिए जाती ॥
एक दिन सब कुमरिया प्रतिदिन की भर्ती यमुना जी के तट पर जा कर अपने वस्त्र उतर दिए और भगवन कृष्णा के गुंडो का गान करते हुए बड़े आनंद से जल क्रीड़ा करने लगी ।
भगवन श्रीकृष्ण जो अंतर्यामी हे उनसे गोपियों की ये अभिलाषा छुपी न थी । वे उनका अभिप्राय जानकर अपने सखा गवलवलो के साथ उन कुमारियों की साधना सफल करने के लिए यमुना तट पर गए । उन्होंने अकेले ही गोपिओ के सारे वस्त्र उठा लिए और बड़ी फुर्ती के साथ एक वृक्ष पर चढ़ गए और गोपियों से मुस्कुराते और हसते हुए बोले । तुम लोग व्रत करते करते दुर्बल हो गयी हो । मेरे सखा गवलवल जानते हे की में कभी झूटी बा नहीं करता । सुंदरियों तुम्हारी इच्छा हो तो अलग अलग ये एक साथ आकर अपने वस्त्र ले ळो।
भगवन की ये हसी मसखरी देख कर गोपियों का हिर्दय प्रेम से सराबोर हो गया और उन्होंने श्री कृष्णा से कहा प्यारे कृष्णा तुम ऐसी अनीति मत करो । हम जानते हे की तुम नन्द बाबा के लादले हो हमारे प्यारे हो । हम जाड़े से ठिठुर रही हो तुम हमारे वस्त्र दे दो; नहीं तो हम नन्द बाबा से कह देंगी ॥
भगवन श्री कृष्णा ने कहा: कुमारियों तुम्हारी मुस्कान पवित्रता और प्रेम से भरी हे । देखि, जब तुम अपने को मेरी दासी स्वीकार करती हो और मेरी आगया का पालन करना चाहती हो तो यहाँ आकर अपने वस्त्र ले लो ।
वे कुमरिया ठण्ड से ठिठुर रही थी । भगवन की ऐसी बात सुन कर अपने दोनों हाथो से गुप्त अंगो को छुपकर यमुना जी के बहार निकली । उनको अपने पास आई देखकर उन्होंने गोपियों के वस्त्र अपने कंधे प रख लिए और बड़ी प्रसन्नता से मुस्कुराते हुए बोले । ' अरि गोपियों तुमने जो व्रत लिया था उसे अच्छी तरह निभाया - इसमें संदेह नहि। परन्तु इस अवस्था में वस्त्रहीन होकर जल में स्नान किआ इससे तो जल के अधिष्ट देवता वरुण और यमुना का अपमान हुआ । अतः इस दोष की शांति के लिए तुम अपने हाथ जोड़ कर सर से लगाओ और उन्हें झुक कर प्रणाम करो, तदन्तर अपने वस्त्र लर जाओ ।
भगवान् श्रीकृष्ण की बात सुनकर उन ब्रजकुमरिो ने ऐसा ही समझा की वास्तव में वस्त्रहीन स्नान करने से हमारे व्रत में त्रुटि आ गई । अतः निर्विघ्न व्रत पूर्ति के लिए उन्होंने समस्त कर्मो के साक्षी श्रीकृष्ण को नमश्कार किआ । क्योकि उन्हें नमश्कार करने से साड़ी त्रुटियों का मार्जन हो जाता हे। जन जसदनंदन श्रीकृष्ण ने देखा की सब की सब कुमरिया मेरी आज्ञा अनुसार प्रणाम कर रही हे, तब वे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने ऊके वस्त्र दे दिये॥
"श्रीकृष्ण चराचर प्रकर्ति के एक मात्र अधीश्वार हे; समस्त क्रियाओं के करता, भोक्ता और साक्षी भी वही हे। ऐसा एक भी आवक्त पदार्थ नहीं हे जो बिना किसी परदे के उनके सामने ना हो । वही सर्वव्यापक अंतर्यामी हे । गोपियों, गोपो और निखिल विश्व के वही आत्मा हे । उन्हें स्वामी, गुरु, पिता मत, सखा, पति आदि के रूप में मानकर लोग उन्ही की उपासना करते हे । गोपिया उन्ही भगवान् को जान बूझ कर के यही भगवान् हे- यही योगेश्वर शरशरतीत पुरषोत्तम हे- पति के रूप में प्राप्त करना चाहती थी।
इन्ही गोपियों की तरह हम सभी लोगो को लग़ता हे की हमने पूजा पथ किआ व्रत किआ प्रभि हमें इसका फल देंगेडगे पर ये इच्छाएं ही कही न कही भक्त और भगवान् के बीच चीर का काम करती हे जिसका हरण होना जरूरी हे हम ये कैसे मान लेते हे की उस सर्वव्यापी और अंतर्यामी प्रभु से कुछ छिपा हे ।
श्रीकृष्ण वस्त्रों के रूप में उनके समस्त संस्कारो के आवरण अपने हातो में लेकर पास ही कदम के वृक्ष पर चढ़ कर बैठ गए । गोपिया जल में थी, वे सर्वव्यापी सर्वदर्शी भगवान् श्रीकृष्ण से अपने आप को गुप्त समझ रही थी- वे मानो इस तत्त्व को भूल गई थी की श्रीकृष्ण जल में ही नहीं है, स्वयं जल स्वरुप भी वही हे। उनके पुराने संस्कार श्रीकृष्ण के सम्मुख जाने में बाधक हो रहे थे; वे श्रीकृष्ण के लिए सबकुछ भूल गई थी; परन्तु अबतक अपने को नहीं भूली थि। वे चाहती थी केवल श्रीकृष्ण को, परन्तु उनके संस्कार बिच में एक पर्दा रखना चाहते थे प्रेम प्रेमी और प्रियतम बीच में एक पुष्प का भी पर्दा नहीं रखना चह्त। प्रेम की प्रकर्ति हे सर्वथा व्यवधान रहित अबाध और अनन्त मिलन।
श्रीकृष्ण ने कहा की ' मुझसे अनन्य प्रेम करने वाली गोपिओ। एक बआर, केवल एक बरपने सर्वस्व को और अपने को भी भूल कर मेरे पास आओ तो सहि। तुम्हारे हिर्दय में जो अव्यक्त त्याग हे उसे एक षड के लिए व्यक्त तो करो। क्या तुम मेरे लिए इतना भी नहीं कर सकती हो?
गोपियों ने कहा - हे श्रीकृष्ण हम कैसे भूले? हमारे जन्म जन्म की भूलने दे तब न । हम संसार के अगाधजल में गले तक द डूबी हुई हे। जाड़े का कष्ट भी हे। हम आना चाहने पर भी नहीं आ पाती हे। श्यामसुंदर ! प्राणो के प्राण हम तुम्हारी दासी हे ! हमारा हिर्दय तुम्हारे सामने उन्मुक्त हे । तुम्हारी अज्ञायो का पला करेंगी। परन्तु निरावरण करके अपने सामने मत बुलाओ ॥

इस संसार में साधक की यही दशा हे- भगवान् को चाहना और साथ ही संसार को भी न छोड़ना, संस्कारो में भी उलझे रहना - माया के परदे को बनाए रखना, बड़ी द्विविधा की दशा हे। भगवान् यही सीखते हे की ' संस्कार शुन्य हो कर, निरावरण हो कर, माया का पर्दा हटा कर आओ ; मेरे पास आओ । अरे तुम्हारा मोह का पर्दा तो मेने ही चिन लिया हे। और तुम अब इस परदे के मोह में क्यों पड़ी हो? यह पर्दा ही तो परमात्मा और जीव के बीच में बड़ा व्यवधान हे; यह है गया बड़ा कल्याण हुआ ।